Monday, 30 March 2020

For the likes of us!

For the likes of us,
whose hearts continue to ache
as if they were meant to always hurt and bleed
What good will your painkiller do to us?

For the likes of us,
Who can overwhelm ourselves,
Just by the sight of a falling flower
A peaceful sea, dying dream
Our unholy being
What will your highly scientific drug do to us?

For the likes of us,
Who swear by Ghalib, in pain
Rush to Rumi, in disdain
Reach out for Tagore, on unbearable days
What will your prescription of pills do to us?

For the likes of us,
Who choke almost to death,
In our cubicles where air is sucked out
Of our lungs and souls
Hit the bed wanting to sleep
Wishing to not be ‘me’
What will your combination of anti this and pro that, do to us?

Tuesday, 24 March 2020

I must always!

I must always close my eyes and go to sleep
even if it shows me
what I wish no one ever sees.

I must always hide my wounds
And mask my scars
before they call it a rotten farce.

I must always pick & hold myself
like a suitcase
on a crowded conveyers belt.

I must always smile
for healing and being
are ornaments of loners in hell.

I must always bow down to you
even after you’ve chosen to
uncrown me.

I must always feel complete
like a metro city, oozing of parties
unlike the bandaged holy Kashmir, reeking of pain and poetry.

I must always sin
how else will the Gods ever win?
I must always.

Saturday, 21 March 2020

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-35!

असमंजस बस इतना ही है यार,
की ख़्वाब देखने और पूरा करने की तलब में कहीं मैं
जीने और साँस लेने के बीच का फ़र्क़ ना भूल जाऊँ,
ये हवाओं के जादू को तूफ़ान समझने की भूल ना कर जाऊँ, बस इतनी सी ही बात है.
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एक दिन जब ये रात ढल जाएगी,
ख़ुशी से तुम्हारी आँख नम हो जाएगी
बस, कुछ पल का इंतज़ार है,
ये मुश्किल घड़ी भी गुज़र जाएगी
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वो मंच आज भी उतना हुस्नवान है
जितना उस रोज़ था.

उस दफ़ा बस हमारा साज
और उनके घुंगरुँ की आवाज़ से
ये जलवा अफ़रोज़ था.
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ऊँची इमारतों और महंगे पिंजरों में बैठ
कौन ख़्वाब देख पाया है?
जायज़, है कि उन्हें बेख़ौफ़ आज़ादी
आख़िर, क्यूँ जाहिल लगती है
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उस लम्हे का सुकून रूहानी थी,
ज़ुबान पर उसका एहसास गवाह है
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अगर हम जैसों को जवाब
किसी बंद कमरे में बैठ कर मिल जाता
तो या तो आज ज़िंदगी जी रहे होते
या मर गए होते.

ये अधूरी, अनजानी बार-बार लौट आने वाली
तलब से तो नहीं जूझ रहे होते.
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तुम में और मुझ में फ़र्क़ तो बहुत है
मुझे तुम्हारी हर चीज़ से फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हें मेरे होने ना होने तक में फ़र्क़ नहीं पता.
बात ये भी ग़लत नहीं की मैंने ही कभी अपने ना होने का इल्म होने दिया हो तुमको
पर ये बात भी, सच है की अब मैं हूँ भी क्या बची
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बस कहा ना होता की होगी
बस यक़ीन ना दिलाया होता की रहना चाहती हो
काश उस वक्त भी बस सच भर ही बोला होता
आज कम से कम इतना दर्द ना होता, इतनी घिन ना आती.
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यादों के ज्वालामुखी में
राख तो ख़ुदी को होना पड़ता है.
दर्द और ज़ख़्म चाहे जैसे भी हो
तड़प कर मरना तो बस दिल ही के नसीब में ना जाने हर बार क्यूँ होता है
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तुम में और मुझ में फ़र्क तो बहुत है मुझे तुम्हारी हर चीज़ से फ़र्क पड़ता है तुम्हें मेरे होने ना होने तक में फ़र्क नहीं पता.
बात ये भी ग़लत नहीं की मैंने ही कभी अपने ना होने का इल्म होने दिया हो तुमको पर ये बात भी, 
सच है की अब मैं हूँ भी क्या बची

Thursday, 5 March 2020

कुछ ऐसा कभी था ही नहीं!

कुछ ऐसा कभी था ही नहीं
मेरा अपना जिस के लिए
मैं जान लगा देता,
फिर वो आयी,
उसके हर ख़्वाब को पूरा करने में
जितना मैं कर सकता था
उससे ज़्यादा कर, उसके ख़्वाब
और ख्वाहिशें दोनो पूरी की
और फिर वो चली गयी.

अब, मैं जो कभी सोचा करता था
की कभी तसल्ली से कुछ करूँगा अपने लिए
अब सोचता नहीं हूँ, क्यूँकि मेरे ज़हन से
वो और उसके ख़्वाब और ख़्वाहिशात
उरते ही नहीं है, उम्मीद भी कम ही है

उसको मेरी फ़िक्र नहीं, जानता हूँ
पर उसके अलावा मैंने भी कहाँ करी किसी की
जब तक साँस है, मान लेता हूँ की ज़िंदा हूँ
एक दिन जब साँस नहीं रहेगी तो मैं भी मर जाऊँगा.
कौनसा किसी को फ़र्क़ पड़ रहा है
मेरे जीने मरने से, कौनसा मैं किसी की यादों में रहने वाला हूँ.