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कविता
लेख
Thursday, 8 January 2015
क्या अब भी इंसान बचा हूँ?
वक़्त की चाकरी करता हूँ
ज़माने को बदलना चाहता हूँ
ख्वाब पूरे करने पर अड्डा हूँ
अपनों के बोझ के नीचे दबा हूँ
ज़ालिम दुनिया मे बसा हूँ
क्या अब भी इंसान बचा हूँ???
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