Wednesday 28 February 2018

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही - 21!

हर मर्ज़ को मिटा देने वाली दवाई तो मिल जाएगी,
लेकिन हर दर्द से रिहा करने वाली औषधि कब आयेगी?
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रत्ती भर उम्मीद से गुफ़्तगू क्या हुई,
हमने तो वक़्त के हक़ में क़सीदे पढ़ने
से ही फ़ारिक ना हुए.
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क्या जानते हो क्लब के बारे में जो उसे सुकून पहुँचाने की होड़ में रातों की नींद और दिन का चैन रोज़ नीलाम किये चले जा रहे हो.
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कुछ वक़्त देना चाहती हूँ अपने आपको, अपने ज़ख़्मों को, अपनी धड़कनों को. उन ज़ख़्मों को वक़्त देना है जिन पर वक़्त के साथ बस धूल जम गयी है. अब शायद कुरेदने पर भी दर्द ना हो, लेकिन ज़ख़्म तो फिर भी ज़ख़्म है उसे भरना होगा उसे इस बात का एहसास दिलाना होगा की वो भी किसी जीती लड़ाई या किसी सीखे हुए सबक़ की निशानी है.
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दाद तो मैं उस चाँद की देती हूँ जिसे ना घटने का ख़ौफ़ है ना ग़ायब होने का. बस अंधेरे में लिपटा हुआ तन्हाई में मुस्कुराता हुआ हमें चंद लमहों के सुकून और अपने अंदर के तूफ़ान से रिहा कर चला जाता है.
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जब ख़ुद का दिमाग़ ही तमाशा देखता रहे तो ग़ैरों के ज़माने को क्या और क्यों दोष दें.
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हमारे इश्क़ का आलम तो देखिए जनाब, पहले हम उनके देखने का इंतज़ार करते थे अब हम उनके देख के अनदेखा करने का इंतज़ार करते हैं.
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तुम्हारी याद में बेचैन होना और तुम्हारे इंतज़ार में सुकून ढूँढने की आदत पड़ गयी है मुझे.
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इत्मिनान और क्लब के बीच की दूरी मिटाने के दरमियाँ सुकून कहीं खो गया और मैं गुमराह हो गयी.
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जिन पर ऐतबार था उन्हें,
हमारे होने से ही ऐतराज था.

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