Thursday 17 January 2019

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-27!

अब ये कमबख़्त शाम गुज़रे,
तब जा कर कहीं रात आएगी,
फिर वो रात आधी उम्र बीत जाने के बाद
शायद सुबह में तब्दील हो,
और आप हैं कि सोच रहे हैं,
दो कश के धुएँ में वक़्त गुज़र जाएगा.
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अगर हम जैसों को सुकून मिल जाए तो,
उस बेग़ैरत सुकून के हक़ में क़सीदे कौन पढ़ेगा.
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जिस दिन अग्नि ग्रहण करना आ जायेगा,
उस दिन राख की जगह तेज में हर अग्नि लिप्त
अंश तब्दील हो जायेगा.
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पूछ रही हो ना क्या छुपा रही हूँ?
चलो बता देती हूँ, जब तुम पूछ ही रही हो
अपना डर छुपा रही हूँ,
डर तुम्हें खोने का, तुम बिन होने का
लो बता दिया, अब बताओ, क्या करें?

रहने दो, तुमने ये सोचा नहीं है,
सोचना भी मत, कहीं ये ना लगे की हम कुछ हैं
वैसे भी तुमसे होगा नहीं,
तुमने कौनसी बेपनाह मोहब्बत
और बेबाक़ इज़हार किए हैं.

तुम जाओ, आबाद रहो, आज़ाद रहो.
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अरे तुम तो शुक्र मनाओ कि तुम,
प्यार नहीं दूसरा प्यार हो,
कहीं पहला होती,
तो समझ नहीं पाती
की हम तुमसे प्यार करते हैं,
या तुम्हें जीते हैं.
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ये क़िस्सा है, कहानी नहीं;
यहाँ हर आग़ाज़, यलगार में तब्दील नहीं होता.
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ना जाने कितनी रातों को सुबह की अज़ान में तब्दील होते देखा है, अब तुम्हीं बताओ नाउम्मीद हों भी तो कैसे।
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इस तरफ़ से तुम मेरा नाम गुनगुनाओ,
उस खिड़की से मैं ताल दूँ,
एक इश्क़ ऐसा भी हो,
जिसमें सुर और ताल का संगम हो.
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कभी रात को सुबह होते देखा,
कभी सुबह को शाम में तब्दील होते निहार लिया,
कुछ रोज़ उनकी बेरुख़ी को इंतज़ार का नाम दिया
कुछ दफ़ा तन्हाई को अंजाम कि तरह सराह लिया.
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अरे वो क्या लौटेंगे जो हमारे ज़ेहन से कभी गये नहीं,
हाँ, अगर उनकी बेरुख़ी ज़रा कम हो जाए तो बताना,
हम भी कुछ गुफ़्तगू, ज़रा सी मुहब्बत कर लेंगे,
वो क्या है की दिल तो आख़िर दिल ही है ना.

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