Wednesday 22 January 2020

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-33!

वो भी तो इक़ शाम ही थी
जब शहर भीगा सा था
कॉफ़ी ठंडी सी थी
सिगरेट भी मधम सी जल रही थी
और मैं बस राख हुए ज़ा रही थी.
——————
ना जाने कैसे,
हर बार उन्हें बस हमसे बात करने भर
का समय ही नहीं मिलता,
दुनिया-जहां, समुंदर-आसमाँ
इन सबसे उनकी गुफ़्तगू हो ही जाती
बस, हर बार हमारी बारी ही नहीं आती
कुछ कमी तो होगी,
हम में, हमारे प्यार में, हमारे इज़हार में
वरना यूँही थोड़ी किसी का समय इतना महंगा हो जाता है.
——————
अब जब इतना सब कर ही दिया है
तो ज़रा सी बेवफ़ाई भी कर ही दो,
कम से कम तुमसे नफ़रत करने की वजह तो मिलेगी,
इश्क़ तो बर्दाश्त हुआ नहीं,
नफ़रत तो शिद्दत से कर लें.
——————
ऐसा नहीं है की हमें दुनिया भर की उम्मीदें नहीं,
बस बात ये है की दुनिया में है ही कौन उम्मीद पूरी करने के लिए.
——————
इन सफ़ेद चादरों, काग़ज़ो, दीवारों
पे लिख देना चाहिए था अपना
हाले-ए-दिल, कि कम से कम
हमारे जाने के बाद वो शब्द
तो हमारे इश्क़ की गवाही देते.
——————
हम यहाँ दिल चीर के रख देते हैं,
उनके आगे, वो चल देते है,
बिन यहाँ झांके.
——————
ऐ ज़ालिम अब तो कमबख़्त रात की भी सुबह हो गयी,
ये तेरी तलब और याद की कब्र अभी तक क्यूँ ना खुदी?
——————
हम उनके पीछे राख हो जाएँ,
या धुआँ बन कही खो जाएँ,
पर मजाल है कि वो,
जिनपे और जिनके लिए
हम मरे जा रहे हैं,
वो बस पलट कर एक दफ़ा देख लें
——————
मिसाल देने वाला अगर कोई हो,
तो उसे खबर कर दो,
की हम,
जिनकी रातें काटे नहीं कटती,
इक सुबह की आस लगाये बैठे हैं, ना जाने कब से.
——————
हम उनकी इबादत रोज़ करें,
और वो हमें हमारी औक़ात,
इक दिन में जाता दें...
....अगर यही मुक़द्दर लिखना था
तो क्यूँ ज़ाया किया हमारा वक़्त,
हम भी बैठ जाते किसी मयखाने में
कम से कम तेरे दर पे आने का अफ़सोस तो ना होता...

No comments:

Post a Comment