Friday 14 February 2020

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-34!

आदत तो हमारी ख़राब है,
जो उनसे रोज़ अपनी ज़िल्लत,
कराए बिना हमें चैन नहीं पड़ता
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अजब खेल है उनका,
हमें रत्ती भर तवज्जो ना देते हैं,
और हमसे पूरी दुनिया माँग लेते हैं.

अजब हैं हम,
सब न्योछावर कर भी,
मूँह ना खुलते हैं,
उनकी इस ज़िल्लत,
के बावजूद.
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उम्मीद के धागे पिरोह कर वो एक ख़्वाब बुनता है,
हर छोटी-बड़ी हार को इन्हीं चादरों के कोने में छोड़ देता है,
आसान नहीं है पर फिर भी वो रोज़ कोशिश करता है,
कभी सोचता है,
कभी सोचता है कि आख़िर क्यूँ सोचता है,
फिर सब छोड़, अपने और उस चादर के बीच किसी को नहीं आने देता.

अब अगर ये प्रेम नहीं,
तो वो कभी प्रेमी बन नहीं सकता,
अगर ये प्रेम है,
तो उस जैसा प्रेमी किसी को मिल नहीं सकता.

•धागे•
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अब वक़्त का क्या है,
रोज़ गुजर जाता है,
जैसे मैं तुम्हारी याद में खर्च
होती चली जाती हूँ.

अब कहाँ इल्म रह गया हमें,
अच्छे और बुरे वक़्त का,
अब तो बस सब गुजर ही जाता है।
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सिर्फ़ लहू बहाने भर की बात होती,
तो बात ही क्या थी,
इस जंग में तो उम्मीद और
सपनों की बली चढ़ गयी.
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समझ तो ये नहीं आता,
की बर्दाश्त आख़िर क्या नहीं होता,
तुम्हारा ना होना
या तुम्हारी याद का होना.
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हमारी यादें भी आधे ग्लास पानी
की तरह ही हैं,
जिंदा रखने के लिए काफ़ी है,
जीने के लिए शायद कम पड़े
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तुम्हारी मचायी हलचल पर तो मैं महाकाव्य रच दूँ
पर ये जो तुम्हारी यादें मेरे लफ़्ज़ खा जाती हैं,
उसका क्या करूँ?
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हुआ कुछ नहीं,
बस आज उनसे,
उन्ही की ज़ुबान
में दो लफ़्ज़ क्या कहे,
उनके तो होश ही उड़ गए.

अरे करे कोई खबर उन्हें,
की उनके इश्क़ में डूबे ना होते
तो इस अंदाज़-ऐ-बयाँ को तो छोड़िए
उन तक तो पलट कर ना देखते
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उन्हें जिन्हें हमारे होने से फ़र्क़ ना पड़ा
उन्हें हमारे ना होने का क्या इल्म भर भी होगा?
ज़िंदा तो उनके आने के पहले भी थे ही,
लाज़मी है कि उनके जाने पर हम मारेंगे तो नहीं ही
बस उनका ये झूठ की वो,
प्यार करते थे, फ़िक्र थी उन्हें हमारी
शायद कुछ वक़्त तक और परेशान करे.

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