Thursday 30 July 2020

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-36!

अजीब खेल बन गया है ये पहचान का
आज मन करता है की बस मर जाऊँ
कल रात, मन करेगा बस यूँही कुछ और पल जीने का.
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बात तो बस इतनी सी ही थी
उनको मेरी ज़रूरत भर रही
इश्क़ तो बस हमारा ही
ज़ख़्म भी यूँ बस सड़ता ही रहा
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काश की उनके इश्क़ का भी बस रंग भर चढ़ता,
कम से कम उतारने की उम्मीद तो होती,
अब तो वो आदत भी नहीं इबादत बन गए है
रोकें भी तो कैसे, रुकें भी तो कैसे
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यक़ीन तुम पर नहीं,
अपने इंतज़ार पे है,
कि इक रोज़ जब तुम आओगे
तो ऐसा भी होगा,
की उम्मीद का धागा नहीं भी टूटेगा
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बेअदबी का दौर तो है ही,
रंगमंच सी ज़िंदगी को
रण्डभूमि जो बना लिया.
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ना-उम्मीदी तो उन नसीबवालों
को ही होती है जिनके दर इक रोज़ उम्मीद आयी हो,
हम जैसों को तो बस इंतेज़ार नसीब
होता है
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बनाके तो वो हमें खेल गये थे,
ना जाने वक़्त वक़्त कैसा बीता की,
हम बस तमाशा बन कर रह गए
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कमाल तो ख़ाक सी साँसों का है
ना मौत आने दें
ना ज़िंदगी जीने
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ये बात अगर बस, इस बार, या उस बार की हो
तो क्या ग़म, ये बात तो हर बार की है
की बस तुमको चाहने की क़ीमत चुकता
करने के लिए रोज़, हर रोज़
अपनी बली चढ़ा देती हूँ.
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दौर तो ये ग़ज़ब का है ही
यहाँ हम उनका ता-उम्र
इंतज़ार करने तक को बैठे हैं
और वो हैं की
मुड़ कर भी नहीं देखते हैं

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