Wednesday 4 November 2020

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-37!

आसान नहीं है ये दौर,
इसलिए शायद जब अच्छा नहीं लगता तब आब पीती हूँ
बाक़ी दर्द से मर ना जाऊँ
इसलिए चंद रोज़ शराब पीती हूँ
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तुमसे इश्क करने की सज़ा तो मुझे मिलनी ही चाहिए,
अगर अपनी तबाही की राह मैंने ये चुनी है तो
मुझे इस कुर्बानी में ही सुकून मिलना चाहिए
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अल्लाह का आकार नहीं
शंकर का ना आदि ना अंत
दोनो की इबादत में
सुकून ही तो है
वो दोनो एक ही तो है
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ना जाने तुम्हारा सही कैसा सही है
की हर बार मेरे लिए ग़लत होता है
तुम्हारी आग ना जाने कैसी है
जो जलती तो शायद तुम्हारे ही अंदर है
पर राख हर बार मुझे ही करती है
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सुनो एक काम करो
मेरा दिल बाहर खींच लो
इसको मसल दो, चीथड़े कर दो
ये रोज़-रोज़ का क़िस्सा ख़त्म कर
मुझे अपने इश्क़ के क़ैद से
अब रिहा करो
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तुम पर अपना सब कुछ
लुटा देना मेरा इश्क़ था
तुमसे ज़रा सा चाहना
मेरी तबाही की वजह
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कमाल तो तुम ही करते हो
ऐसा व्यवहार करते हो
और फिर पूछते हो
तबाह होना क्या होता है
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जवाब तो उन जैसों
के ही नसीब होता है
हमारे हिस्से तो बस
इंतज़ार और तड़प ही है
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अब हमें आदत हो गयी है उनकी बेरुख़ी की
कहीं हम ऐसा कर देते तो, बेहूदगी हो जाती।
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क्या बताएँ, कुछ बताने को बचा है क्या?
तुम्हारी याद में तबाह होने के सिवा अब कुछ रखा है क्या?

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