Friday 8 September 2017

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँही - 18!

ना उन्हें फ़िक्र है ना,
हमारे होने का इल्म.
पर फिर भी उनकी याद में
दिल बहलाना भी क्या बुरा है.
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खिलाड़ी बने चले थे, ज़िंदगी ने खेल बना कर रख दिया.
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आज उसने फिर रुला दिया,
कमबख्त ने आंसू चुरा कर
फिर उस मुस्कान को होठों पर चिपका दिया.
चीखते दिल और दहाडते ज़मीर को
आज फिर उसने चुप करा दिया.
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इस सैलाब को तुम क्या रोकोगे,
ये तो ख़ुद ही अपनी बबसि का
मोहताज है.
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ये जो तुम मेरे भरोसे के रोज़ चीथड़े करके, मेरे ज़मीर का मज़ाक़ उड़ा देते हो. शर्म नहीं आती जब इस दागबाज़ी को भलाई की चादर के नीचे छुपा देते हो?
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तुम्हारी आँखें वो मरहम हैं,
जो तुम्हारी बातों के ज़ख़्म को,
अनदेखा करने पर मजबूर कर देती हैं.
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ये बेख़ौफ़ ख़याल ही तो हैं,
जिन्होंने साँसों में ज़िंदगी फूँकी है;
वरना सवालों के जवाब धूँडने की
हवस ने तो ना जाने कब का मार दिया होता.
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यूँ तो लफ़्ज़ों से कुछ होगा नहीं, लेकिन तन्हाई बाटने और बयान करने के लिए कोई ना सही कुछ तो चाहिए ही.
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दिल के चीथडों के बीच,
जब धड़कन बंजर ही सही,
चल रही हैं,
तो ये बीच राह में
हार मानने वालों हम कौन होते है?
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आँखों के अन्दाज़ - ए- बयां के आगे लफ़्ज़ अक्सर हार ही जाते हैं.



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