Wednesday 18 July 2018

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-24!

ना इस लम्हे में तुम्हें चैन मिलेगा
ना उस पल में आराम आएगा
इस अंधी दौड़ में ना जाने
किसको इत्मिनान नसीब होगा.
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हम तो उनकी फ़रमाइश को फ़रमान समझा करते थे,
और वो थे की हमें अपने इश्क़ को
अपना तक कहने नहीं देते थे.
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नींद, चैन और इत्मिनान की आहूती तो उसी दिन चढ़ा दी थी,
जिस दिन हमने उनकी आँखों में सब देखा
और उन्होंने हमारे होने तक का इल्म ना हुआ.
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इश्क़ था इसलिए शायद
इतनी आसानी से तुम
चले गए और हम बिखर गये
नफ़रत होती तो ना आज
तुम रिहा होते और ना मैं तन्हा
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तेरी ख़ुशी में मेरा हिस्सा,
हो या ना हो,
मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता
लेकिन तेरे हर ज़ख़्म, हर दर्द, हर दुःख
पर मेरा हक़ है.
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चलो आज इतना तो
इत्मिनान हो गया
की अब तुम कमसे कम
तन्हा तो नहीं हो,
ख़ुश हो शायद
मैं भी आज ख़ुश
हूँ या ना हूँ
परेशान तो नहीं हूँ
आख़िर अब तुम्हें चैन
मिल गया
अब मेरी फ़िक्र का
क्या फ़ायदा?
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ख़्वाबों को दफ़्न कर
साँसों की क़ीमत अता
कर रही हूँ
बस इतना एहसान करना
इस लेन देन को
ज़िंदगी का नाम
ना देना.
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सपनों को या तो पूरा कर लीजिए,
या मार दीजिए,
ये अधूरे रह जाएँ,
तो इतना मारते हैं की
ना मरा जाए और जिया तो ख़ैर क्या जायेगा.
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अभी उम्र ही क्या हुई है,
जो अभी से लगने लगा
कि उम्र बीत गयी उनके प्यार में.
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पहले हुआ करता था तुम्हारा पता,
मेरे सुकून का,
अब तो जब भी बेचैन होती हूँ,
तुम्हारा ही नाम ले लेती हूँ,
बेचैनी और दर्द का अच्छा बहाना हो तुम, अब.

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