Saturday 21 March 2020

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-35!

असमंजस बस इतना ही है यार,
की ख़्वाब देखने और पूरा करने की तलब में कहीं मैं
जीने और साँस लेने के बीच का फ़र्क़ ना भूल जाऊँ,
ये हवाओं के जादू को तूफ़ान समझने की भूल ना कर जाऊँ, बस इतनी सी ही बात है.
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एक दिन जब ये रात ढल जाएगी,
ख़ुशी से तुम्हारी आँख नम हो जाएगी
बस, कुछ पल का इंतज़ार है,
ये मुश्किल घड़ी भी गुज़र जाएगी
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वो मंच आज भी उतना हुस्नवान है
जितना उस रोज़ था.

उस दफ़ा बस हमारा साज
और उनके घुंगरुँ की आवाज़ से
ये जलवा अफ़रोज़ था.
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ऊँची इमारतों और महंगे पिंजरों में बैठ
कौन ख़्वाब देख पाया है?
जायज़, है कि उन्हें बेख़ौफ़ आज़ादी
आख़िर, क्यूँ जाहिल लगती है
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उस लम्हे का सुकून रूहानी थी,
ज़ुबान पर उसका एहसास गवाह है
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अगर हम जैसों को जवाब
किसी बंद कमरे में बैठ कर मिल जाता
तो या तो आज ज़िंदगी जी रहे होते
या मर गए होते.

ये अधूरी, अनजानी बार-बार लौट आने वाली
तलब से तो नहीं जूझ रहे होते.
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तुम में और मुझ में फ़र्क़ तो बहुत है
मुझे तुम्हारी हर चीज़ से फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हें मेरे होने ना होने तक में फ़र्क़ नहीं पता.
बात ये भी ग़लत नहीं की मैंने ही कभी अपने ना होने का इल्म होने दिया हो तुमको
पर ये बात भी, सच है की अब मैं हूँ भी क्या बची
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बस कहा ना होता की होगी
बस यक़ीन ना दिलाया होता की रहना चाहती हो
काश उस वक्त भी बस सच भर ही बोला होता
आज कम से कम इतना दर्द ना होता, इतनी घिन ना आती.
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यादों के ज्वालामुखी में
राख तो ख़ुदी को होना पड़ता है.
दर्द और ज़ख़्म चाहे जैसे भी हो
तड़प कर मरना तो बस दिल ही के नसीब में ना जाने हर बार क्यूँ होता है
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तुम में और मुझ में फ़र्क तो बहुत है मुझे तुम्हारी हर चीज़ से फ़र्क पड़ता है तुम्हें मेरे होने ना होने तक में फ़र्क नहीं पता.
बात ये भी ग़लत नहीं की मैंने ही कभी अपने ना होने का इल्म होने दिया हो तुमको पर ये बात भी, 
सच है की अब मैं हूँ भी क्या बची

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