Wednesday 21 July 2021

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-37!

मिज़ाज की बात
अब क्या करें
पहले जीने के लिए मर रहे थे
अब मरने के लिए जी रहे हैं
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अब रात हो गयी है
कल रात के देखे सपने
अब अपना दम तोड़ रहे हैं
लम्बी है ये रात
घनी, धुँध, काली
बिलकुल उस रात जैसी......
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बेमतलब ना होती
तो बेपनाह कैसे होती? 

मोहब्बत
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अब ये घर में क़ैद रहने वाली बातें मत करो मुझसे,
आज़ाद रूह हो,
निकल जाओ,
उड़ जाओ,
कुछ नहीं तो एक-आध
इंक़लाबी ख़्वाब ही सजा आओ
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अब सारी उम्र झरोखों से ही
आसमान ताकोगी तो
उड़ना कब सीखोगी?
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ज़रूरतें तो बस
रत्ती भर ही हैं
पर कम्बख्त
ख़्वाहिशों का क्या करें?
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तुम्हारे और मेरे बीच इक रोज़
आख़री दफ़ा बात ज़रूर होगी;
तुम्हारी याद से रिहा हो जाने पर
एक सुकून की शाम नसीब होगी
रात मैं नींद आएगी
अगली सुबह उम्मीद भी अपना घर कर जाएगी
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ना जाने कैसे जाहिल हैं वो 
जो शामें ग़म से भर देते हैं
और रातें यादों से रोशन कर
कहीं और चल देते हैं.
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अब कोई मुझे या तुम्हें
बेहूदा करार ही दे
ये रोज़-रोज़ का तुम्हारा जुल्म
ये मेरी रोज़-रोज़ उम्मीद की मौत
का घिनौना खेल
रातों को ना सो पाना
सुबह ना जाग पाना
रोज़ बस यूहीं हार जाना
अब बहुत हुआ
अब ना तुम रहे
ना मैं
अब ये खेल क्यूँ?
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तुम्हारी यादें किसी बक्से में रख कर मैं आगे बढ़ आयी हूँ;
पर ये कम्बख्त बक्सा मेरा पीछा कर रहा है किसी प्रेत की तरह

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