Saturday 4 June 2022

कि अब वो जुल्म ढ़ा भी दें तो कितना ढाएँगे?

कि अब वो जुल्म ढ़ा भी दें तो कितना ढाएँगे?
आख़िर मुर्दों को मार कब तक जश्न मनाएँगे?
हम तो ज़िंदा तब भी ना थे, 
अब क्या ख़ाक जी जाएँगे.

अफ़सोस तो उनका है जो जीने की आस लगाए बैठे,
आज सुबह देखने से पहले मर गए
और हम निहते लोग फिरसे देखते रह गए.

किसी को ना दी चित्ता सजाने की आज़ादी
कोई बेचारा उलझा रह गया कफ़न-दफ़न की तैयारी में
की आज वो अंधकार आ गया भरी दुपहरी में
जब उसको वो चला गया, मेरा भी कोई बिछड़ गया.

पर देख ऐ ज़ालिम
ये जाहिल अब भी मुस्कुरा रहा है
मेरे अपनों, तेरे अपनों
की सड़ती लाशों पर
झूठे आंसू बहा रहा है.

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