Tuesday 19 December 2017

इश्क़ और मेरी कभी जमी नहीं!

इश्क़ और मेरी कभी जमी नहीं,
ना उसने मुझे कभी अपनी डोर से बांधा
ना मैंने कभी उसे अपनी ज़ंजीरों से जकड़ा.

हाँ, बस एक दूसरे
की आँखों में झाँक कर
उस उमहड़ते सैलाब
को देख कर ज़रा मुस्कुरा
ज़रूर लिया करते थे.

बहुत शानदार दर्पण होती है,
लेकिन ना जाने वो सब कैसे
छुपा लेती हैं
ना जाने कितने राज़
बिन बताये किसी कोने में
दबा लेती है.

लेकिन, वो उन तमाम राज़
से जो वाक़िफ़ है,
वो उन आँखों में क्या ढूँढता है?
अपना सुकून?
या मेरे वो टुकड़े
जिनका ना मुझे इल्म
है ना एहसास है?

मैं उसकी आँखों
में चाँद सी ठंडक
और सूर्य जितना तेज
देख कर मुस्कुरा लेती थी.

ऐसे ही बस आँखों
की बातें हुआ करती थी,
और अब नहीं होती.

ना उसके पास कोई लफ़्ज़ हैं,
ना मेरे पास अल्फ़ाज़,
पर एक एहसास है,
गुज़रा हुआ, बीता हुआ
और वो बहुत है.

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