Monday 17 September 2018

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-25!

जो आज़ाद है, उसे तुम क्या रिहा करोगे,
जो क़ैद है उसे, पिंजरे में बंद करके भी क्या करोगे?
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ये अच्छा किया की,
दिल के चीथड़े कर दिए,
कहीं चंद टुकड़ों में
तोड़ा होता तो,
फिर से टूटने का डर रहता,
अब ठीक है,
चीथडों में पड़ा है,
ना फिर से टूटने का डर,
ना बिखर जाने का ख़ौफ़.
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तुम्हारे इश्क़ में गिरफ़्तार क्या हुए,
कमबख़्त आज़ादी से ही नफ़रत हो गयी,
तुम्हारी मुहब्बत से रिहा क्या हुए,
ज़िंदगी ज़हर हो गयी।
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ये अच्छा हुआ की इश्क़ सिर्फ़ तुमसे हुआ,
तुमसे जो ना कभी हो सकते थे ना हो,
इत्मिनान रहा की किसी से दिल्लगी तक ना हुई,
वरना ना जाने कितनी भारी हो जाती साँसे,
और ज़ख़्मी हो जाता क्लब।
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दाद, तो मैं उस तन्हाई की वफ़ादारी की देती हूँ ,
जो तुम्हारी याद आते ही चली आती है.
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ग़म तो उन्हें हो,
जिनके साथ पहली बार हुआ हो,
हमको तो उनकी, उन जैसों की
बेरुख़ी की आदत है.
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समझ नहीं आता कि तुम्हारे
जाने का ग़म कैसे बयां करूँ,
तुम तो मेरे कभी थे ही नहीं,
होते अगर, तो तुम्हारे
आज ना होने पर
चंद अश्क़ ही ज़ाया कर लेती
तो कम से कम जायज़ लगती.
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एक दौर तो वो भी था,
जब तुम हमारे
और हम तुम्हारे
साथ मज़ाक़ किया करते थे.

आज भी वक़्त की घड़ी यूँही
चल रही है
बस फ़र्क़ तना कि
अब हम तुम्हारे लिए मज़ाक़ हैं.
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इससे बेहतर तो हम अनजान ही थे,
कम से कम तब तुम्हारे दिए ज़ख़्मों
का दर्द तो कम होता.

अब तो ना तुम अनजान हो
ना हमारे जहान में हो.
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ज़रा सी खरोंच क्या लगी,
वो तो उसे ज़ख़्म ही समझ बैठे,
ज़रा इल्म होता अपने दिये हुए
घाव का तो शायद ये ना कहते.

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