Monday 24 September 2018

ख़ामोशी की आवाज़!

वो बिस्तर पर लेटी पंखे को देख रही थी और मैं सामने वाली दीवार को. हमने एक दूसरे से ना आँख मिलायी और ना ही बात की. मुझे उस कमरे मे आए 15 मिनट हो गये थे. लेकिन ना मेरे पास उसे कुछ कहने को था ना उसके पास. कुछ देर बाद डॉक्टर आये और उससे हाल पूछा, उसने अपना हाल बताया. डॉक्टर ने सर हिलाया, काग़ज़ पर कुछ लिखा और चला गया.

वो फिर पंखे को देखने लगी, लेकिन इस बार मैंने पूछा उससे, कैसी हो?, उसने मेरी आँखों में देखा कुछ देर और बोली की पानी दे दो. मैंने उसे पानी दे दिया. पानी पीने के बाद बोली, कभी ऐसा लगा है की प्यास लगने पर पानी ग्लास में होने के बावजूद पानी पीने में आलस आए. मैंने पूछा मतलब, उसने कहा यही तो बात है, हाल-ऐ-दिल बयां करो तो हर कोई मतलब-मतलब करता रहता है. नहीं होता हर दर्द का मतलब, नहीं है इस हाल का जवाब. क्या बताऊँ?

मैंने कुछ नहीं कहा....लेकिन शायद मेरी ख़ामोशी की आवाज़ उसने सुन ली.

उसने मेरे हाथ पर लगी चोट को देखते हुए कहा, दर्द होता है इसमें अभी भी, मैंने कहा हाँ, कभी-कभी. वो बोली दर्द, चोट का, या उस दिन का जब हाथ उस पर उठाया था और उसने तुम पर. मैंने बात को टालते हुए कहा, आज शाम को कुछ अच्छा खाते हैं. वो हमेशा की तरह मेरा हाथ पकड़ कर बोली, बात बदल लो, एहसास तो बदल नहीं पाओगी. मैंने कहा, दर्द अब कभी-कभी होता है, पहले से बेहतर है. उसने कहा, हाँ, चोट है, वक़्त के साथ ठीक हो ही जाएगी, ज़ख़्म और दर्द को देखो कितने ज़ालिम दिन और तन्हा रातें लगती हैं.

अक्सर ज़ख़्म पर धूल जमने में कुछ ज़्यादा ही देर लग जाती है, धैर्य रखना, जम जाएगी धूल, भूल जाओगी ये ज़ख़्म. मैंने कहा, कोई ज़ख़्म नहीं है बस थोड़ी सी चोट है ठीक अब तो क़रीब-क़रीब ठीक भी हो गयी है. आप आराम करिये मैं चलती हूँ.

मुझे पीछे से रोकते हुए वो बोली, जब डर हो तो छुपाना नहीं चाहिये, आँखें बड़ी दग़ाबाज़ होती हैं ना जाने कैसे कमबख़्त सच उगल देती हैं. टूटे हुए ख़्वाब, चैन से सोने की आस, कुछ नहीं छुपने देती; ख़ैर, कोई बात नहीं....तुम भागो. हमेशा की तरह, यही तो करती हो. जाओ. जिस दिन औक़ात हो जाएँ कि किसी की आँखों में आँख डाल कर अपने डर, अपनी तड़प को बयां कर पाओ उस दिन आना, बतायेंगे की कैसे उम्र बीत जाने पर भी ज़िंदगी का साथ निभाया जाता है.

जैसा की उसने कहा, मैं फिर भाग गयी....हमेशा कि तरह, आदत नहीं है ना यूँ आइना देखने की.....ख़ैर, क्या फ़र्क़ पड़ता है. वक़्त ही तो है, काट जायेगा; ज़िंदगी ही तो है बीत जायेगी.

No comments:

Post a Comment