Wednesday 19 December 2018

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-26!

तुम्हें पाकर खो चुके हैं,
अब ना हार का कोई मतलब है,
ना जीत का वजूद.
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ज़िंदगी बसर हो गयी
उनके जवाब के इंतज़ार में
और वो हैं की कहते हैं,
तुम ज़रा बदल गए हो.

अरे कोई इत्तला करो उन्हें,
की बदलेंगे हम क्या,
बस यूँ समझ लें कि
पहले जवाब का इंतज़ार था,
अब बस ना उम्मीदी बची है.
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आज बड़े दिन बाद वो वाला दर्द हो रहा है. वो वाला जो तुम्हारे जान पर हुआ था. हाँ! वो बात और है जब तुम गए थे तो आँखें नम तो हो गयी थी, आज तो कमबख़्त अश्क़ ने दग़ा दिया है. सब जल रहा है मेरे अंदर, लेकिन कुछ राख नहीं हो रहा, बस जले जा रहा है. जब कुछ राख बन ही नहीं रहा तो आग बुझेगी कैसे? आग बुझेगी नहीं तो दर्द थमेगा कैसे?

वैसे तो ठीक है, होना चाहिए ऐसा दर्द, पता चलता है कि दिल ज़िंदा है, क्लब मरा नहीं है.

तुम्हारी आँखों को पहली बार देख कर ही समझ गए थे की कुछ बुरा तो नहीं कर सकते, और देखो आज तुम्हारे चले जाने के इतने समय बाद भी तुम्हारी याद ज़िंदा होने का अहसास ही करा रही है. अंदर आग जला रही है, कहीं महसूस करना भूल न जायें इसलिए आज फिर तुम्हारी एक और दग़ाबाज़ी पर बड़ी आशिक़ी आ रही है.
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कोई जुदाई चाह रहा है,
कोई रिहाई के ख़्वाब पिरोह रहा है,
इन सबके बीच एक वो भी है,
जो जुदाई के लिबाज़ में
रिहा होना चाह रहा है.
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उन्हें करना ही क्या है,
मुस्कुराने के सिवा,
क़सीदे तो हमें पढ़ने
पड़ेंगे ना याद में.
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अगर वो समय से हमारा हाल भर ही पूछ लेते,
तो आज इतना बेहाल तो ना होते,
ख़ैर....
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वो जिसे हम प्यार समझते थे,
वो साथ तो दूर,
चंद लम्हों की हमदर्दी से नवाजना भी,
मुनासिब नहीं समझते थे.
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बोझ ख़्वाहिशों का नहीं,
ख़्वाबों का है,
वो ख़्वाब जिन्हें रुकसत तो कर दिया,
पर ख़ुद को रिहा ना कर पाए.
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ना जाने कितनी रातों को सुबह की अज़ान में तब्दील होते देखा है, अब तुम्हीं बताओ नाउम्मीद हों भी तो कैसे
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ये क़िस्सा है, कहानी नहीं;
यहाँ हर आग़ाज़, यलगार में तब्दील नहीं होता.

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