Sunday 14 March 2021

चक्रव्यूह!

काफ़ी समय हो गया है कुछ लिखे। काफ़ी नहीं, शायद बहुत वक्त बीत गया है। मैंने तुम्हारे बारे में नहीं लिखा, अपने बारे में भी नहीं, यहाँ तक की मंडी हाउस के पेड़ों और उन अज़ीज़ खान की गलियों तक के बारे में भी एक लफ़्ज़ नहीं लिखा। अजीब सा दौर है ये। ना लिखने का मन करता है, ना कुछ ख़ास पढ़ने का, बस बार-बार आग़ा शाहिद अली और इस्मत चुगताई की वही सौ बार पढ़ी किताबों के ही पन्ने पलटती रहती हूँ। ठीक से मालूम नहीं कि पढ़ती भी हूँ या नहीं, क्यूँकि उन पन्नों पे लिखे शब्दों से मैं इतनी वाक़िफ़ हूँ की ना भी पढ़ूँ तो लगता है कि पढ़ लिया है। आजकल तबला की साधना भी कम करती हूँ। इन सब बातों का कोई मतलब होता होगा, पर मुझे अभी पता नहीं है। एक सच ये भी है की मुझ में अभी इस बात पर सोच-विचार करने की क्षमता भी नहीं है।

उन पर भरोसा था, अब नहीं है। यक़ीन तो मुझे तो कहीं ना कहीं था ही की ये लम्हा ले दे कर आ ही जाएगा, पर ऐसे आएगा, इस बात का इल्म मुझे ज़रा कम था। ये क़िस्सा भी अब बड़ा घिस्सा-पिटा सा हो गया है। मेरा उनके लिए जन्नत-जहां एक कर देना और उनका मुझे तवज्जो ना देना। अब ये चक्र भी बड़ा अपना सा लगता है। इसमें होने वाली हर चीज़ से अब मैं रूबरू हो गयी हूँ। कुछ ख़ास नहीं है, वही है। पर हर बार की तरह ये मुझे, भड़भड़ा रहा है। पर ये हो रहा है, तो ये भी एक तरह का सत्य बन गया है।

चिंतित तो नहीं हूँ, पर ज़रा विचलित ज़रूर हूँ। बस इतना ही है। बाक़ी तो बल्लिमरान, मंडी हाउस और ख़ान के सहारे सब, इंशाल्लाह ठीक हो ही जाएगा।

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