Tuesday 27 December 2016

कुछ अलफ़ाज़, बस यूँ ही -14!

मुस्कान का लिबाज़ भी आजकल मैं  सिर्फ उम्मीद की खातिर उड़ लेती हूँ।
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सब अलग-अलग चीज़ें ढूंडते हैं। कुछ रब, कुछ सुकून और कुछ अपने आशिक़ की मुस्कान।
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उसकी आँखों में दर्द नहीं है,
उसकी आँखों में कुछ टुकड़े हैं
बिखरे हुए, बेचैन, शायद आज़ाद या कैद
पर वो लड़ रही है, चल रही है।
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आज फिर जवाब नहीं आया 
मेरा टूटा हुआ दिल 
फिर एक बार टूट गया 
और एक बार फिर 
तुम्हारी यादों के साथ 
तले मेरी ख़ुशी दब गयी.
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दर्द तो आज भी बहुत है, पर शायद ज़माने भर का नहीं.
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कीमती चीजों की कीमत अदा करने में इतने मशहूल हो गये की अनमोल चीजों की वक्त करने का ख्याल ही नहीं रहा।
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दगाबाज़ों ने अगर दग़ा दिया 
तो क्या गलत किया, क्या नया किया 
ग़म तो इस बात का है 
जिन्हें हमने अपना समझा
आज उन्होंने एक पल में पराया किया।
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अब तो बस इतना पता है कि वो जिंदा है,
और इस भरोसे अब मुझे जीना है।
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अगर ग़ालिब इतना टूटा हुआ ना होता
तो, आज हर आशिक शायर कैसे होता।
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दिन बीत गये
महीने बदल गये
साल गुज़र गये
पर,
तुम्हारी यादें 
मिटना तो दूर 
धुंधली तक नहीं हुई।

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