Monday 13 February 2017

कुछ अलफ़ाज़, बस यूँ ही -15!

पहले जब बुरा लगता था,
तब मैं रो लेती थी
अब बस हस देती हूं।
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जब तुम थी तब मैं खुश थी, नहीं हो, तब भी ज़िंदा तो हूँ ही.
रुका नहीं कुछ, बस बदल गया सब.
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किताबों से ज्यादा आंखें पढ़ी हैं
इसलिए शायद दर्द का एहसास ज्यादा
और बयान कम होता है।
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जब भी दर्द होता है तो बस तुम्हारी आंखों को याद कर लेती हूं, और फिर ना जाने सब अपने आप ठीक कैसे हो जाता है।
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अब मैं दर्पण के सामने नहीं जाती.
ना जाने यह कमबख्त
मेरा कोनसा टुकड़ा दिखा दें
जिसे मैं संभाल ना तो दूर
मैं देख तक ना पाऊं।
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तेरी एक मुस्कान के लिए मैं उसको हज़ार सज़ाओं की रज़ा दे दूं, हर रोज़।
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दोनों एक दूसरे को पकड़े हुए हैं इसलिए शायद संभले हुए हैं।
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उन्हें सिर्फ मेरे अश्क दिखाई देते हैं
काश हर अश्क के पीछे छुपा
इंतज़ार भी नज़र आता
तो मेरी आँखों से छलका
हर एक बूँद स्वार्थ हो जाता.
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तुम आओ या ना आओ, तुम्हारी याद तो रोज़ आ ही जाती है।
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ख्वाहिशें हैं, बेनाम और सरफिरी तो होंगी ही.


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