Sunday 18 June 2017

किससे, कहानी और तुम!

ये जो कहानियाँ पढ़ कर तुम सब अपना दिल बहला लेते हो, उन कहानियों के पीछे छुपे क़िस्से को जानने का मन नहीं करता? ये जो तुम हर चीज़ को कह देते हो की ये सिर्फ़ कहानी उसके पीछे छुपी सचाई को देखने से डर लगता है क्या? हर कहानी क़िस्सों से बनती है, और क़िस्से बनते हैं ज़िंदगी के हर उस पल से जो इस बात का इल्म कर देके ये ज़िंदगी है और इसको जीना है. हाँ, यहाँ बहुत लोग हैं. इतने लोग की तुम शायद खो जाओ इनके. लेकिन कभी सोचा है इन सबके क़िस्से कहानी क्यूँ नहीं बन पाते? ये जो नहीं सोचने वाली सोच है ना, यही है जो हमें खा रही है. तुम्हें भी और मुझे भी. इससे पहले की यह हमे खा जाए अपना क़िस्सा किसी अपने को ज़रूर सुना देना, क्या पता उसे एक कहानी और तुम्हें एक दोस्त मिल जाए.

वैसे तो ऐसा कोई मिलेगा या नहीं यह कहना मुश्किल है लेकिन अगर तुम चाहो तो दीवारों को भी अपनी कहानी सुना सकते हो, वो क्या है ना दीवारों के कान होते हैं; और इंसानो की तरह ना दिल होता है ना दिमाग़. मैं भी आजकल अपनी दीवार को अपनी कहानी सुना रही हूँ और वो रोज़ बिना कुछ कहे सुन लेती है. सहारा भी दे देती है और छोड़ कर चले जाने वाली धमकी भी नहीं देती.

लेकिन तुम ऐसा मत करना, ख़ैर तुम्हारे पास तो लोग भी बहुत हैं इसलिए शायद मेरे लिए तुम 2 मिनट तक नहीं निकाल पाते, ख़ैर कोई बात नहीं कोई काम होगा; या फिर मुझसे ना बात करने वाला काम भी तो काम ही है तुम्हारे लिए वो ही काम शायद कर रहे होगे. कोई बात नहीं. अब मुझे आदत पड़ गयी है. लेकिन तुम्हें ऐसी आदत ना पड़े इसका मैं हमेशा पूरा ख़याल रखूँगी. लिखना तो नहीं चाहती लेकिन फिर भी लिख देती हूँ क्यूँकि वैसे भी रोज़ मन मारती ही हूँ तो आज एक और बार सही.

तुम बस अपना क़िस्सा सुनाते रहना हम भी सुनते रहेंगे, हमेशा.
                                         

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