Tuesday 23 April 2019

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-28!

हो सकता है कि तुम्हारी ख़ुशी पर मेरा हक़ ना हो,
ये भी मुमकिन है कि मैं तुम्हारे जश्न में शरीक ना हूँ,
पर ये कि हम तुम्हारे साथ उस ग़म के लम्हे में ना हों
नहीं होगा,
वो क्या है कि इश्क़ के अंगारों पर चलते-चलते
तुम्हारी हिफ़ाज़त नहीं इबादत करना सीखा है,
अब बताओ उन अशकों और ज़ख़्मों को
तुम्हारा कैसे होने दें.
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वो अंधकार भी ना जाने कैसे इतना रोशन था,
की हर रात आता, स्वप्न दिखता, ऊर्जा देता;
और सूर्योदय के पूर्व अपने आप मिट जाता.
अब बताएँ कैसे ना यक़ीन हो आलोकिक प्रेम में?
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कोई ज़ख़्म हो तो दवा की जिये
दर्द में दुआ की जिये
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कुछ चीथड़े जोड़ कर मैंने अपने बिखरे ख़्वाबों को फिर संजो लिया.
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आज फिर तुम्हारे इंतज़ार में,
सुबह को दोपहर,
दोपहर को शाम,
और शाम को रात होते देख लिया.

हाँ, ज़्यादा कुछ कहाँ बदला,
तुम ना तब आए ना अब,
बस ये तारीख़ गुज़र गयी,
एक आस और चल बसी....
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अब मैं मुलाक़ातों को नाम नहीं देती,
कहीं आज की पहली कह दूँ,
तो कल की आख़िरी की तुम माँग कर लोगे
होगा फिर वही,
तुम तो चलते बनोगे
और हमें अपने चीथड़े फिर समेटने पड़ेंगे.
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क्या मजबूरी रही होगी उसकी,
जिसने अपनी बेड़ियों को पायल मान लिया.

क्या हालात रहे होंगे उसके
जिसने मर्घट को जलाते समय
उस अग्नि में रोशनी ढूँड ली. 

देख रहे हो, सपने के अंतिम संस्कार ने,
उसे क्या कुछ सिखा दिया,
क्या बना दिया.
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हम हैं की अपना दिल चीर के,
उनके सामने राख देते हैं,
और वो हैं कि उसे बिना देखे,
उस पर पाँव धर निकल पड़ते हैं.
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आज तो मुझे उस तबाही पर ग़ुरूर है,
जो सिर्फ़ तुम्हारे बिछड़ने, चले जाने के बाद आयी,
कहीं तुम्हारे साथ आजाती तो मुझे अपने
इश्क़ की वफ़ा पर शक हो जाता।
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बस जाने की जल्दी,
कुछ छूट ना जाने का ख़ौफ़,
ना मक़ाम का पता
ना अंजाम की परवा,
बस दौड़े चले जा रहे हैं.

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