Monday 22 April 2019

गंगा किनारे पूर्णिमा की रात!

आज की रात कितनी ख़ुशनसीब है. आज जब चाँद अपने पूरे आबो-ताब में पूर्णिमा की रात को मुस्कुरा रहा है तो ये तन्हाई उसको देख यूँ शर्मा रही है, जैसे वो ख़ुद चाँद की चाँदनी. 

यहाँ इस घाट से जहाँ मैं चाँद को एक टक देख रही हूँ, वहाँ से ऐसा लग रहा है की ये चंद्रमा कहीं का राजा है, या मध्यम लय में बहती गंगा उसका सबसे वफ़ादार सिपाही, और इस घाट पे पड़े मैं और मेरी तन्हाई इसकी वो प्रजा जो इस राजा से कोई अपेक्षा नहीं करती सिवाए इसके की ये वक़्त जैसा है, जहाँ है बस वहीं थम जाए. 

अंदर का सैलाब जो अभी शांत सा मालूम पड़ रहा है, वो कम से कम कुछ लम्हे तो अपना तांडव ना करे, ये मस्तिष्क जो हर पल दो पल फटने को होता है ज़रा थामे, ये दिल जो ना जाने कुछ महसूस भी करता है या नहीं वो ज़रा इस सरलता का गवाह बने. 

बस और कुछ नहीं ये पल कुछ लम्हे बस ज़रा ठहर जाए :)

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