Wednesday 7 October 2015

कुछ अलफ़ाज़, बस यूँ ही - 06!

मुस्कुराते लबों का ये मतलब नहीं की आँखों को झूठ बोलना आगया ।
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रिश्ते तो सिफॆ किताबों या ख्वाबों में होते हैं क्योंकि हकीकत तो सौदेबाजी की गुलाम है। 
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यादें भी अजीब होती हैं, अतीत कुछ इस कद्र याद दिला देती हैं की आज का होश ही नहीं रहता ।
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कुछ ज़ख्म भरते नहीं हैं, बस पुराने हो जाते हैं। 
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दुश्मन गोली मारे तो सिर्फ चोट लगती है, और अगर कोई अपना मारे तो ज़िदगी बोझ लगती है।
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ददॆ का वो मुकाम जहाँ जख्म के होने का एहसास ही ना हो।
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रिश्तों को नाम या पहचान की नहीं सिर्फ वक्त और भरोसे की ज़रूरत होती है।
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ददॆ में बिताये हर लम्हें ने आज मुसकुराने के काबिल बनाया है।
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तुझे भुलाने की हिम्मत तो मैं कर भी लूंगी लेकिन उन यादों का क्या करूँ जो मेरे कम्बख्त ज़हन में बसी हैं।
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कुछ ज़ख्मों पर सिर्फ धूल जमने का इंतजार होता है।
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