Monday 4 June 2018

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-23!

वो जो ज़िंदगी से धड़कन चुरा ले गये,
आज पूछ रहे हैं के सब ख़ैरियत है या नहीं
कोई ज़रा उन्हें बता दे की साँस क़ायम है
तो बस ज़िंदा भर हैं.
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हर टूटा ख़्वाब,
उस उधुरी ख़्वाहिश की
गवाही देगा जिसे मैंने
चाहा था पर पाने की
हिमाक़त ना की.
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वो कह रहे हैं, होश में आओ
अरे! कोई ख़बर उन्हें
की अगर हम होश में अभी गए
तो क्या वो सच्चाई से
लड़ने साथ आएँगे
या यूँ ही हमारे
सुकून का दम घोटने का मन है उनका
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ज़िंदगी में एक रोज़ उम्मीद
ख़फ़ा भी हो जाए तो ग़म नहीं,
लेकिन उस रोज़ जिस दिन
ज़िंदगी की उम्मीद ख़त्म हो जाएगी
तो साँसों के बोझ को कैसे संभालियेगा.
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अगर तेरी हिफ़ाज़त की होती मैंने,
तो एक रोज़ तुझे दग़ा देने का
ख़याल शायद ज़हन में आ जाता
पर तेरी तो इबादत की है मैंने
अब बता क्या करूँ?
टूट के बिखर जाऊँ,
या तेरे इंतज़ार
में ज़िंदगी बसर करदूँ.
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अब वो हमें शुक्रिया बोलने लगे हैं, ज़रा चाँद से पूछो की उस अंधेरी रात ने उससे कुछ कहा भी है या अब तक बस गिड-गिड़ा ही रहा है उसके क़दमों तले.
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उसे क़ैद तो कभी किया ना था,
पर आज उसको रिहा कर,
ख़ुद आज़ाद हो रही हूँ.
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कम से कम दग़ा तो वफ़ादारी से देते.
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उनके ज़ख़्म गहरे थे,
इसलिए शायद
अशकों में तब्दील हो गए
हमारे पायाब घाव
तो बस कहीं
तन्हाई में ही दफ़न
होते रहे.
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हमें तो उनकी नफ़रत भी नसीब नहीं,
कभी इश्क़ होता तब तो नफ़रत पनपती
उन्होंने तो हमें कभी तवज्जो ही ना दी
ना इश्क़ मिला ना नफ़रत.

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