Sunday 9 June 2019

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-29!

एक रोज़ इतना धुआँ हो,
की सच की हेवानियत
मेरे खोकलेपन को ललकार ना पाये.

वो क्या है की दिल के चीथोड़ों
को अभी मैं समेट ही रही हो,
क्लब के टुकड़े उठाने का अभी
मेरे पास वक़्त नहीं....
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अब जीत कर भी क्या करेंगे?
अपने ख़्वाबों को तो हार ही चुके हैं..
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जब तक इश्क़ ढ़ूँड रही हूँ तुझमें,
जब तक खेल रही हूँ तेरी दर्द की आग से
तबाह कर ले मुझे,
किसी दिन अपने अंदर के इश्क़ से मोहब्बत हो गयी
तो ना तेरा ये आशिक़ बचेगा,
ना मेरी तन्हाई आबाद होगी.
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मेरे इश्क़ और तेरे इश्क़
में बस एक फ़र्क़ था,
मुझे तुझसे और तुझे उनसे
इश्क़ हुआ.
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अगर उन्हें हमारे दर्द का इल्म भर होता,
तो आज ना कोई दर्द होता, ना ग़म.
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सुनने में आया है की वो,
आज-जीने मरने की बात कर रहे हैं,
कोई ख़बर करो उन्हें,
की अगर मौत इतनी आसानी से आ जाती,
तो ना जाने आज हम कितनी बार मर चुके होते.
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वो बड़ी बेबाक़ी से कह देते हैं,
“क्या चाहती हो, मैं मर जाऊँ”
यूँ तो मैं अपने होश में हर बार ना कह देती हूँ,
लेकिन ज़रा सा डर है मुझे उस लम्हे का
जब ये सवाल वो मदहोशि में मुझसे पूछेंगे
और मेरे मुँह से हाँ निकल जायेगी.
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तुम्हारे इश्क़ की आग में जलने का जज़्बा अभी मुझमें और है,
चिंता मत करो राख होने से पहले तुम्हें अपना हाल-ऐ-दिल ज़रूर बताऊँगी.
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ये वक़्त जो तुम्हारी चिंता में,
मुझे खा रहा है,
क्या तुम्हें पता है,
की मेरा दिल तुम्हारे
इस बर्ताव से बिना बात में
मरा जा रहा है.
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कभी जानने की कोशिश करोगे तो नहीं,
पर फिर भी, कह देती हूँ,
तुम्हारे नहीं अपने लिए,
मेरे दर्द की वजह वैसे तो तुम हो,
लेकिन अहसहनीय दर्द की दवा,
सिर्फ़ तुम्हारी याद ही है.

तुम, दुआ और सज़ा दोनो हो.

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