Sunday 28 July 2019

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँ ही-31!

हम तुम्हारी यादों से रिहा हो जाते,
अगर तुम्हारी आँखों में रत्ती भर भी फ़रेप होता,
पर तुम्हारी आँहखों से तो मानो
इश्क़ और तन्हाई के सैलाब के अलावा
ना कभी कुछ दिखा, ना छलका
अब बताओ कैसे जुदा हो जाएँ.

इस बिछड़न को कैसे जुदाई मानलें
क्या करें कि सब ठीक हो जाए
तुम मेरे नहीं अपने आपके हो जाओ
की तुम और मैं एक दूसरे का ही तो हिस्सा हैं.
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आज वो कह रहे हैं की हम बहुत अकेले हैं,
कोई जा कर कह से उन्हें की जब,
हम और हमारी तन्हाई साथ हुआ करें,
तब वो और उनकी याद ना आया करे.
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भीड़ में अपने आपको खोने आए थे
तुम्हारी याद में बह कर रह गए।
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वो जिन्होंने बेहाल किया है बस एक बार हाल पूछ भर लें,
तो ज़िंदगी जीने का एक मक़सद मिल जाएगा,
वरना यू अब कब तक बस साँसे लेंगे?
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तुम कौन होते हो कहानी को अंजाम देने वाले?
तुम कहानी हो, और कहानी अपनी मंज़िल नहीं ढूँढती,
वो बस बहती, चलती, लड़खड़ाती हुई,
उस अनजान राह पर अपने क़दम रखती है,
कहानी का अंजाम नहीं होता,
हाँ, हर अंजाम की कोई कहानी होती होगी,
पर कहानी इन सबसे परे बस साँस लेती,
आगे बढ़ती है, कभी एक-आध बार शायद
देख लेती होगी मुड़ कर,
बस, इससे ज़्यादा ना कहानी कुछ करती है,
ना होती है.
कहानी, तो बस कहानी होती है.
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कायनात की साज़िश तो देखो,
भरी जवानी में उसने हमें,
उनसे जुदा कर अपने पास बुला लिया
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ये जो तुम्हारे इश्क़ में हमें,
तुम्हारी उस झलक की जो तलब मचती है,
उसे मैं किससे नापूँ,
ऐसी लत तो मुझे सिर्फ़ तुम्हारी ही लगी है,
जिसमें रोज़ कुछ हिस्सा मरता है,
रोज़ कुछ राख होता है,
अगर कुछ बच जाए तो बस तुम्हारे दीदार के इंतज़ार में पड़ा होता है
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यहाँ हम अपना दिल उनके लिए चीर के रख रहे थे,
और वो वहाँ हम जैसों के चीथडों का हिसाब करने में जुटे हुए थे.
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कहीं पड़े रहने से कहीं अच्छा है,
कि हम कहीं खो जाएँ ,
आख़िर खोज में भी तो ‘खो’ है,
शायद खोना ही खोज का पहला क़दम है,
शायद बिखर जाना आज़ादी की पहली सीढ़ी हो,
हो सकता है.....
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कब तक मैं तुम्हारे,
उगले हुए ज़हर को
सियाहि बनाऊँगी?
ज़हर है,
मारता तो मुझे भी है

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