Thursday 18 July 2019

दिल का अंजाम!

ये जो मैंने अपना दिल
तुम्हारी हथेली पर रख
दिया था, ऐसे जैसे कोई फूल हो
उसको तुम कसके निचोड़ भी देते
तब भी मुझे कोई शिकवा ना होती.

वो दिल आख़िर है तो तुम्हारा ही,
निचोड़ लेते तो उसमें सिमटा
प्यार जिसको मैंने सिर्फ़ तुम्हारे नाम,
आजतक किया हुआ है,
वो शायद बाहर आ जाता,
बहने लगता,
गाढ़े लाल ख़ून की तरह.

पर, ये जो तुमने इस दिल के
चीथड़े कर दिए
इसका मैं, क्या करूँ?
वापस जोड़ना शुरू करूँ?
ऐसे ही टुकड़ों को पड़ा
रहने दूँ, सड़ने के लिए?
या फिर, इस सबको समेट कर
कहीं फेंक दूँ?

जाना था तो चले जाते
मैंने कब चाहा था तुम्हें
बाँध के रखना
कब थी मेरी आरज़ू
की तुम मेरे बन कर रहो?
हाँ, बस उम्मीद थी,
की जव जाओगे तो,
तरीक़े से, विदा लोगे
हमें एक दूसरे का समान
लौटा देंगे,
और तुम और मैं
अपने रास्ते चले जाएँगे.

पर तुम तो आख़िर तुम हो,
ना तुमने कुछ लौटाया,
और ना वो यादें ले कर गए
जो हमने साथ में बनायी थी
रह गया ना समान
एक दूसरे के पास
अब?
अब क्या?

उन चीज़ों और यादों
का क्या करें?
जलायी नहीं है मैंने
पर अंदर से राख कर रहीं
हैं वो मुझे,
डिब्बे में बंद वो समान है,
और क़ैद मैं हूँ.

देख रहे हो?
ये तबाही,
ये खोकलापन,
ये, मेरा नहीं है
ये, मेरे उस हिस्से का है
जो तुम्हारा है,
वो बात और है
की जो मेरा हिस्सा
तुम्हारा है,
वही मैं हूँ.

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