Tuesday 19 January 2016

कुछ अलफ़ाज़, बस यूँ ही -08!

कहानी का अंत तो फिर भी लिखा जा सकता है, पर दस्तायें तो बस यूँ ही ख़तम हो जाती हैं |
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मृत्यु का नहीं, डर तो उस ज़िन्दगी का है जो मृत्यु का रोज़ इंतज़ार कराये!
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उड़ान तो हौंसलों से और हौंसलों की होती है, पंख तो सिफ्र एक बहाना है।
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अगर उस ख्वाब के पीछे इतनी तारीखें ना गवाई होतीं........ तो आज शायद साँसें खो देते।
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कौन कमबख्त कहता है ज़िन्दगी का तमाशा बनता है, ज़िन्दगी तो अपने आप में ही एक बहुत खूब तमाशा है इसका आप क्या बना पायेगे
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हर बीते लम्हे की याद आती है, उस मुस्कुराते चेहरे को देखने के लिए आँखें रोज़ तड़प सी जाती हैं.
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अब तो जल कर राख भी हो गये, कम से कम उस राख को तो उड़ने दो।
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जितना मजबूर इस दिल ने उससे मोहोबत करने के लिए किया है उतना मजबूर तो आज तक इस ज़िन्दगी ने सांस लेने के लिए भी नहीं किया.
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डोर बाँधने के लिए नहीं उड़ान को सहारा डदेने के लिए होती है.
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ना जाने कौनसी गुस्ताखी हो गयी हमसे की इतने लोग होने के बावजूद भी हम उनकी मेहेज़ याद से तनहा महसूस करने लगे।
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