Sunday 31 January 2016

कुछ अलफ़ाज़, बस यूँ ही -09!

ना जाने ये कैसा अजीब असमंजस है......जहाँ ये समझ ही नहीं आ रहा की दर्द की वजह से दुःख है या दुःख की वजह से दर्द
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इबादत के लिए इजाज़त की ज़रुरत नहीं....
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गैरों की अमानत पे हमारा हक कहाँ
और
अपने तो अमानत ऐसी होते हैं
जिनकी इबादत हम रोज़ किया
करते हैं।
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वक़्त हमे समझने मे नहीं सम्भलने मे लग गया सारा।
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अब क्या समझाएं समझदारों को ..... किफायत के ज़माने मे पूरी सांसें और अधूरी धडकनों के सहारे कैसे जी रहे हैं।
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काश यारी से पहले खुदारी के बारे मे सोचा होता तो आज इतनी घुटन ना होती।
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वो अनकहे वादे जो तुम बिन बताये निभाते हो
अच्छा लगता है जब तुम हमारी मुस्कान सरहाते हो
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वो पूछ रहे थे हमसे की पुराने ज़ख़्म भर गए ..... अब क्या बताते हम उन्हें की धुल जमने से ज़ख्म भरते नहीं बिगड़ते है।
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हालत तो बदल गये ना जाने हालात कब बदलेंगे.
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अब ख्वायिशों को भी नाम दे देंगे तो बेनामी का परचम कौन संभालेगा...
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