Thursday 16 June 2016

कुछ अलफ़ाज़, बस यूँ ही -11!

तब तुम थे, अब मैं हूँ। हम तो खैर ना तब थे, ना अब हैं।
-------
अब हार भी गए तो क्या ?
अब अगर जीत को ना चूम पाए तो क्या ?
अब तुम हो
और
वो मेरी जीत भी है और कामीयाबी भी |
---------
कितनी अजीब बात है, तुम मेरी चाहत से ज़रूरत बन गई और तुम्हें पता भी नहीं चला। मैं के रह गयी और तुम्हें दिखा भी नहीं। 
--------
इज़हार के इंतज़ार मे काफी गलतियां भी की कुछ मौके भी गवाए |
-----------
गिरने से हार नहीं होती। हार तो सिर्फ हार मनाने से होती है।
---------- 
मुझे सपनें और कहानियाँ इसलिए नहीं पसंद क्यूँकि वो मेरे ना चाहते हुए भी वो या तो अधूरे रह जाते हैं या फिर खत्म हो जाते हैं ।
----------
नींद कहाँ से आएगी 
जब तन्हा रातें 
अस्मंजस में बिताई जाएँगी...
--------
स्वाभिमान और अभिमान में  उतना ही फर्क होता है जितना की लालच और तरकी में होता है.
---------
दिल तोड़ दिया, चलो कोई बात नहीं पर अन विश्वास पर प्रहार मत करना |
--------
रातें और यादें जितनी उलझी रहें उतना कम दर्द होती है। 

No comments:

Post a Comment