Sunday 7 June 2015

कुछ अलफ़ाज़, बस यूँ ही!

आँखों में बहता सागर 
और 
रगों में बहता खून 
होता तो ज़रूर है 
लेकिन....
इस कमबख्त दिल को
सच मानना गवारा कहाँ |
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जब रगों में खून की जगह 
कला के करीब जानेका जूनून बहे,
तो ये मान लेना चाहिए
की तुम कला के लिए नहीं
कला की वजह से जी रहे हो ||
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अरज और आवाज़
में उतना ही फरक होता है
जितना की
चोट और ज़ख़्म में होता है..
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पुराने जख्म मिटते नहीं है
बस वक्त के साथ
उन पर धूल जम जाती है...
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रात के अंधेरे में
चंद्रमा की रौशनी
और
दिन की चुभती गर्मी में 
पेड़ की छाँव, 
उम्मीद और शीतलता
का प्रतीक होती हैं ।।
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सुरूर तो हमेशा से ही हल्का ही रहा है,
हाँ! जूनून की बात करो
तो बताएं जोश किसे कहते हैं!
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हमेशा तो
तुम अपने खुद के भी नहीं हो,
कोई इंसान या चीज़
कैसे होगी फिर हमेशा के लिए? 
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वक़्त की इबादत
तो तब करेंगे
जब उस वक़्त की
कैद से रिहा होंगे...
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जब सारे दरवाज़े बंद हो जाएँ तो,
खिड़कियाँ खोलने
और
तोड़ने में ही समझदारी है...
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